नई दिल्ली:
8 अप्रैल के ऐतिहासिक फैसले के बाद, जिसमें राज्यों द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय की गई थी, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तनातनी एक बार फिर सोमवार को स्पष्ट दिखी।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, जो 14 मई को भारत के अगले प्रधान न्यायाधीश के रूप में शपथ लेंगे, सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ‘अश्लील’ सामग्री के खिलाफ एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान बोले कि, “यह कार्यपालिका का क्षेत्र है… और वैसे भी हम पर कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप के आरोप लगाए जा रहे हैं!”।
उन्होंने संकेत दिया कि पहले से आलोचनाओं का सामना कर रही अदालत को इस क्षेत्र में कदम रखने से बचना चाहिए। न्यायालय ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से इस बात का आश्वासन भी मांगा कि सुनवाई को प्रतिकूल मुकदमेबाज़ी के रूप में नहीं देखा जाएगा।
याचिकाकर्ता के वकील विष्णु शंकर जैन ने भी अदालत को भरोसा दिलाया कि, “यह कोई प्रतिकूल याचिका नहीं है… बल्कि गंभीर चिंता का विषय है।”
डिजिटल दुनिया में ‘अश्लीलता’ का फैलाव
न्यायमूर्ति गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ के समक्ष याचिका में सरकार से एक “राष्ट्रीय सामग्री प्राधिकरण संघ” बनाने का अनुरोध किया गया, जो इंटरनेट पर ‘यौन उन्मुख’ सामग्रियों के प्रसारण पर रोक लगाए। याचिका में कहा गया कि कुछ वेबसाइटें बिना किसी फिल्टर के पोर्नोग्राफिक सामग्री परोस रही हैं, और कई ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी बाल पोर्नोग्राफी जैसी आपत्तिजनक चीजें देखी जा रही हैं।
फरवरी में भी सुप्रीम कोर्ट ने, यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया के एक विवादास्पद कॉमेडी शो के मामले में, सरकार से पूछा था कि क्या वह ऐसे ‘अश्लील’ कंटेंट की पहचान और विनियमन के लिए कदम उठा रही है।
सरकार ने सोमवार को अदालत को बताया, “कुछ नियम पहले से मौजूद हैं… और और अधिक सख्त प्रावधानों पर कार्य हो रहा है।”
कोर्ट ने इस पर प्रतिक्रिया दी, “कुछ तो करना ही चाहिए।”
सॉलिसिटर जनरल ने भी सहमति जताई और कहा, “कुछ सामग्री इतनी विकृत है कि दो पुरुष भी साथ बैठकर नहीं देख सकते।”
कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका?
इस प्रकरण के मूल में सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच गहरा अविश्वास है। तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा छह वर्षों तक कई विधेयकों को मंजूरी न देने पर अदालत की तीखी आलोचना ने तनाव को और बढ़ा दिया।
अदालत ने इसे ‘मनमाना’ और ‘गैरकानूनी’ करार दिया और कहा कि डीएमके सरकार द्वारा दोबारा पारित किए गए दस विधेयक स्वतः पारित माने जाएंगे। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने अन्य राज्यपालों और राष्ट्रपति को भी विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने का निर्देश दिया।
इस आदेश ने एक बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया।
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने न्यायपालिका पर अराजकता फैलाने का आरोप लगाया। पार्टी के ही दिनेश शर्मा ने भी तीखे बयान दिए। हालांकि भाजपा ने औपचारिक रूप से इन बयानों से दूरी बना ली। निशिकांत दुबे अब अवमानना का सामना कर रहे हैं।
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी कई बार कहा कि सांसद ही संविधान के असली संरक्षक हैं, और सुप्रीम कोर्ट पर ‘परमाणु हथियार’ (अनुच्छेद 142) के दुरुपयोग का आरोप लगाया।
पिछले सप्ताह, न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, “न्यायपालिका पर प्रतिदिन हमले हो रहे हैं, फिर भी हमारी स्वतंत्रता और दृढ़ता पर कोई आंच नहीं आ सकती।”
सरकार का रुख
सरकारी सूत्रों ने HNEWS को बताया कि सरकार “न्यायपालिका के प्रति सम्मान” रखती है।
यह बयान तब आया जब दोनों संस्थानों के बीच टकराव की गर्मी अपने चरम पर थी।