भारत की संघीय संरचना पर मंडरा रहे परिसीमन के साए के बीच, डीएमके (DMK) ने एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई है, जिसमें चार राज्यों के मुख्यमंत्री, बीजू जनता दल (BJD) और भारत राष्ट्र समिति (BRS) के वरिष्ठ प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। यह बैठक चेन्नई के ITC ग्रैंड चोला होटल में शनिवार को आयोजित की जाएगी, जिसका उद्देश्य इस मुद्दे पर समन्वित कानूनी और राजनीतिक रणनीति तैयार करना है। हालांकि, पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने बैठक से दूरी बना ली है।
परिसीमन पर बढ़ती चिंता
दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में बढ़ती चिंताओं के बीच यह बैठक एक अहम मोड़ पर हो रही है। इन राज्यों का मानना है कि प्रस्तावित परिसीमन से संघीय सिद्धांतों का ह्रास होगा और उनकी संसदीय प्रतिनिधित्व शक्ति असमान रूप से घट जाएगी। इस पहल के सूत्रधार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन हैं, जिन्होंने इसे भारतीय संघवाद के लिए एक ऐतिहासिक क्षण बताया है।
स्टालिन ने शुक्रवार को सोशल मीडिया पर एक वीडियो संदेश साझा किया, जिसमें उन्होंने इस मुद्दे की गंभीरता को उजागर किया। उन्होंने चेताया कि जो राज्य जनसंख्या नियंत्रण और राष्ट्रीय प्रगति में अग्रणी रहे हैं, उन्हें परिसीमन की एकतरफा प्रक्रिया के तहत दंडित नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने इसे संघवाद और लोकतंत्र की नींव पर सीधा प्रहार बताया।
कौन-कौन होंगे बैठक में शामिल?
बैठक में केरल, तेलंगाना और पंजाब के मुख्यमंत्री – पिनाराई विजयन, ए. रेवंत रेड्डी और भगवंत मान – के साथ कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी. के. शिवकुमार उपस्थित रहेंगे। इसके अतिरिक्त, बीजेडी और बीआरएस के वरिष्ठ नेता भी इस रणनीतिक बैठक का हिस्सा बनेंगे। बैठक का मुख्य एजेंडा परिसीमन को 2026 से आगे बढ़ाकर 30 वर्षों के लिए स्थगित करने की रणनीति तैयार करना, कानूनी विकल्पों पर चर्चा करना, और जनता के बीच इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाना है।
बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष के. टी. रामाराव और बीजेडी के पूर्व राज्यसभा सांसद अमर पटनायक व पूर्व मंत्री संजय दास बर्मा शुक्रवार को चेन्नई पहुंच चुके हैं। केवल डी. के. शिवकुमार शनिवार सुबह बैठक में शामिल होंगे।
संघीय अधिकारों की लड़ाई
स्टालिन ने इसे एक राज्य-विशेष के बजाय एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बताया। उन्होंने कहा कि भारत के कई राज्य अब इस मुद्दे पर एकजुट हो रहे हैं और यह केवल एक बैठक नहीं, बल्कि देश के भविष्य को आकार देने वाला एक आंदोलन है।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने इसे संघीय समानता की लड़ाई बताया, जबकि कर्नाटक के डिप्टी सीएम डी. के. शिवकुमार ने इसे एक गैर-राजनीतिक मुद्दा करार देते हुए राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक चर्चा की मांग की। दिलचस्प बात यह है कि विपक्षी गठबंधन ‘INDIA’ भी इस स्तर की उच्च-प्रोफ़ाइल बैठक आयोजित करने में विफल रहा है, जिससे डीएमके की इस पहल का राजनीतिक महत्व और भी बढ़ जाता है।
परिसीमन और शक्ति संतुलन
परिसीमन का मूल उद्देश्य जनसंख्या के आधार पर संसदीय सीटों का पुनर्वितरण करना है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इससे दक्षिण और पूर्वी राज्यों का प्रतिनिधित्व घट सकता है, जबकि अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले उत्तरी राज्यों को अतिरिक्त लाभ मिलेगा। इससे भारतीय संघीय ढांचे में शक्ति संतुलन असंतुलित हो सकता है, जिसका लाभ सत्तारूढ़ दल को मिल सकता है।
तमिलनाडु सरकार ने हाल ही में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, जिसमें 58 राजनीतिक दलों (बीजेपी को छोड़कर) ने एकमत होकर निष्पक्ष परिसीमन की मांग का समर्थन किया था। अब इस आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने की कोशिश की जा रही है।
केंद्र की प्रतिक्रिया और आगे की राह
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कोयंबटूर में एक जनसभा के दौरान कहा था कि दक्षिणी राज्यों की संसदीय सीटों में कोई कटौती नहीं होगी। लेकिन डीएमके इसे केवल एक राजनीतिक बयानबाजी मान रही है, क्योंकि यह वादा न तो संसद में किया गया और न ही किसी आधिकारिक मंच पर।
विशेषज्ञों का मानना है कि परिसीमन के बाद दक्षिणी और पूर्वी राज्यों को संसद में अपनी आवाज़ उठाने के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ सकता है। यह न केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रभावित करेगा, बल्कि नीति निर्माण और बजट आवंटन जैसी अहम प्रक्रियाओं पर भी असर डालेगा।
इस महत्वपूर्ण बैठक से एक स्पष्ट संदेश गया है कि दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्य निष्पक्ष परिसीमन की मांग को लेकर एकजुट हैं और वे अपने अधिकारों की लड़ाई में पीछे हटने वाले नहीं हैं। अब देखना यह होगा कि केंद्र सरकार इस पर क्या रुख अपनाती है और क्या विपक्ष इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक धारदार बना पाता है।