भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान के अनुच्छेद 142 के बढ़ते प्रयोग पर गहरी चिंता जाहिर की है। उन्होंने इसे लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए एक ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ करार दिया, जो हमेशा न्यायपालिका के पास उपलब्ध है। उपराष्ट्रपति ने भारत में संवैधानिक व्याख्या की वर्तमान प्रक्रिया पर पुनर्विचार की आवश्यकता बताई, विशेषकर उस संदर्भ में जब हाल के दिनों में न्यायालय ने राष्ट्रपति को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्देश जारी किए।
गुरुवार को एक कार्यक्रम के दौरान धनखड़ ने कहा — संविधान के अनुच्छेद 142 पर जिस तरह से न्यायपालिका निर्भर होती जा रही है, वह गंभीर चिंता का विषय है।
धनखड़ ने अनुच्छेद 142 को लोकतंत्र पर प्रहार करने वाली एक ऐसी मिसाइल बताया, जो हर वक्त सुप्रीम कोर्ट के तरकश में तनी रहती है। उन्होंने दो टूक कहा, देश में संवैधानिक व्याख्या की परंपराओं की समग्र समीक्षा होनी चाहिए।
उनकी यह टिप्पणी उस समय आई जब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में राष्ट्रपति को यह निर्देश दिया कि राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाए।
अनुच्छेद 142 — आखिर है क्या?
संविधान का अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय’ सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक आदेश पारित कर सके।
यह विशेषाधिकार न्यायालय को कानून की सीमाओं से परे जाकर भी उचित समाधान खोजने की छूट देता है। चाहे वह किसी निर्णय को लागू करने की बात हो, दस्तावेज़ों की पेशी का निर्देश हो या अवमानना के मामलों में सज़ा तय करना — अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट इन सभी अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।
जहां कई बार इसे न्याय सुनिश्चित करने का एक प्रभावशाली औजार माना गया है, वहीं राजनीतिक गलियारों में इस प्रावधान पर न्यायिक अतिक्रमण का आरोप भी अक्सर लगाया जाता रहा है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ की चेतावनी
राज्यसभा इंटर्नशिप कार्यक्रम के समापन समारोह में बोलते हुए धनखड़ ने कहा कि स्थिति चिंताजनक है, जब ऐसा प्रतीत हो कि न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देशित कर रही है। उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर ऐसा करने का संवैधानिक आधार क्या है?
धनखड़ ने कहा —
“आप राष्ट्रपति को आदेश दें, यह स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती। संविधान के अंतर्गत आपके पास केवल व्याख्या का अधिकार है, और वह भी अनुच्छेद 145(3) के अंतर्गत।”
उन्होंने स्पष्ट किया कि संविधान की व्याख्या केवल पांच या उससे अधिक न्यायाधीशों की पीठ द्वारा ही की जानी चाहिए।
धनखड़ ने यह सुझाव भी दिया कि अनुच्छेद 145(3) में संशोधन की आवश्यकता है, ताकि संविधान से जुड़े गंभीर मामलों की सुनवाई के लिए एक मजबूत पीठ का गठन अनिवार्य किया जा सके। उन्होंने कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट में महज़ आठ जज हुआ करते थे, तब इस व्यवस्था का महत्व कहीं अधिक था, जो अब कमज़ोर हो चला है।
अनुच्छेद 142 की ओर संकेत करते हुए उन्होंने फिर दोहराया —
“यह प्रावधान लोकतांत्रिक शक्तियों पर आक्रमण करने वाली एक न्यूक्लियर मिसाइल जैसा बन गया है, जो 24×7 न्यायपालिका के पास तैयार खड़ी है।”
तमिलनाडु मामला — न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका
उपराष्ट्रपति की यह टिप्पणी उस फैसले के संदर्भ में भी थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आरएन रवि के बीच विवाद में दखल दिया।
8 अप्रैल को दिए गए इस निर्णय में शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि विधानसभा किसी विधेयक को पुनः पारित कर भेजती है, तो राज्यपाल के पास उसे राष्ट्रपति के पास भेजने का विकल्प नहीं रह जाता।
जब तक उस विधेयक में कोई गंभीर संशोधन न हो, राज्यपाल की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह उसे स्वीकृति दें।
यह ऐतिहासिक फैसला न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ द्वारा सुनाया गया। पीठ ने अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए कहा कि ‘पूर्ण न्याय’ सुनिश्चित करने के लिए सभी दस विधेयकों को उसी तिथि से पारित माना जाएगा, जिस दिन वे दोबारा विधानसभा से पारित होकर राज्यपाल के पास भेजे गए थे।
निष्कर्ष
संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसा हथियार है, जो न केवल न्यायपालिका को अतिविशिष्ट शक्तियाँ देता है बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को भी गहराई से प्रभावित करता है। उपराष्ट्रपति के मुताबिक, इस पर गहन पुनर्विचार वक्त की मांग है, जिससे लोकतांत्रिक संतुलन को बनाए रखा जा सके।